Encounter formula to end crime in UP successful
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Editorial: यूपी में अपराध को खत्म करने का मुठभेड़ फार्मूला कामयाब

Encounter formula to end crime in UP successful

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Encounter formula to end crime in UP successful- प्रयागराज में अधिवक्ता उमेश पाल और दो पुलिस कर्मियों की हत्या ेके 47 दिन बाद एक मुठभेड़ में इस वारदात में संलिप्त दो आरोपी अगर मारे जाते हैं तो इसे पुलिस की बड़ी कामयाबी करार दिया जाता है। जाहिर है, कानून और व्यवस्था के लिए समस्या बन चुके गैंगस्टर अतीक अहमद के लडक़े असद और शूटर गुलाम का जिंदा रहना उतना जरूरी नहीं था, जितना उन्हें ठिकाने लगाकर प्रदेश और देश की जनता को इसका अहसास कराना कि उत्तर प्रदेश में अब कानून का राज है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा में कहा था कि वे प्रदेश में अपराधियों को मिट्टी में मिला देंगे।

यह भी कितना खूब है कि गैंगस्टर अतीक अहमद गुजरात की जेल से प्रयागराज आते हुए रास्ते में मीडिया के सामने गिड़गिड़ाता है कि अब उन्हें मिट्टी में तो मिला ही दिया है, अब तो रगड़ा लग रहा है।   इसके दूसरे ही दिन अधिवक्ता उमेश पाल एवं दो पुलिस कर्मियों की हत्या के उसके लडक़े असद और आरोपी शूटर गुलाम को पुलिस मुठभेड़ में मार गिराती है। निश्चित रूप से अतीक अहमद ने राज्य पुलिस और सरकार को चुनौती दी थी, हालांकि यह आज के दौर की सरकार और पुलिस है, जोकि अपने तरीके से काम को अंजाम देना जानती है। देश संविधान से चल रहा है, लेकिन अपराधियों के लिए कौनसा संविधान। उस वीडियो को पूरी दुनिया ने देखा है, जिसमें अधिवक्ता उमेश पाल की हत्या की जा रही है, उसी वीडियो में अतीक अहमद का लडक़ा असद और शूटर गुलाम गोलियां दाग रहे हैं और बम फोड़ रहे हैं। अगर जैसे को तैसा की शैली में जवाब दिया जाए तो यह गलत कैसे हो सकता है?

   यूपी एक समय अपराध का पर्याय होती थी। यहां कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता था। हालात अब भी कमोबेश ऐसे ही हैं, लेकिन अब पूरा दृश्य बदला हुआ नजर आता है, अपराधियों के हौसले अब भी मचलते हैं, लेकिन उन्हें फिर इसका अंदाजा हो जाता है कि अब वे अपराध करके बच नहीं पाएंगे। विकास दूबे अपने आप में बहुत बड़ा अपराधी बन चुका था, उसे लग रहा था कि उसका कुछ नहीं बिगड़ सकता। प्रदेश की जनता त्राहिमाम कर रही थी। लेकिन एक दिन जब उसे अदालत ले जाया रहा था तो हादसा घट गया, गाड़ी पलट गई और वह छूट कर भाग निकला। पुलिस ने गोली चलाई और उसकी मौत हो गई। कोर्ट ने पुलिस से जवाब मांगा, जांच कमेटी बैठी, रिपोर्ट तैयार हुई। विरोधी नेताओं ने आरोप लगाए, मीडिया में न जाने क्या-क्या नहीं उछला और फिर सब खामोश। अपराध के एक पन्ने पर फुल स्टॉप लग गया।

न्यायतंत्र कहता है कि अपराधी को पकड़ो, केस चलाओ, अदालत में आरोप साबित करो और फिर उसे जेल भेज दो। आरोप साबित नहीं हुए तो जेल से रिहा, फिर से वही करतूतें जारी। अपराध कभी मरता नहीं है, कुकुरमुत्तों की भांति और अपराधी पैदा हो जाते हैं, तब इलाज क्या है। पुलिस के इस न्यायतंत्र पर सवाल उठे हैं, लेकिन जनता ने इस पर खूब खुशी मना रही है। फिल्मों में गुंडे जुल्म ढाएं तो दर्शकों का खून खौलता है, लेकिन अगर नायक उन्हीं गुंडों को मारे तो दर्शकों का खून बढ़ने लगता है। यह सामान्य मानवीय मेधा तंत्र का मामला है। जनता कहती है, अपराधी का क्या मानवाधिकार। लेकिन संविधान कहता है, अपराधी भी मानव है, उसके भी अधिकार हैं। उसके अपराध को अदालत में साबित करो और उसे सजा दिलवाओ। लेकिन भारतीय न्याय व्यवस्था में किसी अपराधी को सजा दिलवाना क्या इतना ही आसान है। हालांकि समर्थन नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा ही होता रहा तो निर्दोष भी मारे जाएंगे, या फिर मारे जाते भी हैं। लेकिन अनेक मामलों में मुठभेड़ ही क्या सबसे बड़ा न्याय साबित नहीं होती है? खौफ को खत्म करने का और क्या माध्यम हो सकता है, एक गोली और सब खत्म। न कोर्ट, न गवाही, न आरोप पत्र।

   आरोपी असद और शूटर गुलाम की मुठभेड़ में मौत का मामला राजनीतिक रंग ले रहा है तो इसमें सभी के अपने-अपने स्वार्थ छिपे हैं। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तो बगैर पूरी कहानी समझे ही निर्णय दे दिया कि यह फर्जी मुठभेड़ है, वहीं बसपा प्रमुख मायावती ने भी ऐसी ही प्रतिक्रिया दी। हालांकि जिस दिन विधायक राजू पाल की हत्या हुई या फिर अब अधिवक्ता उमेश पाल की हत्या हुई, तब शायद उन्होंने इसके लिए यूपी सरकार को जिम्मेदार ठहराया था। बेशक, इस प्रकरण की जांच जरूरी है लेकिन अपराधी को किसी कीमत पर नहीं बचाया जाना चाहिए। अपराध का खात्मा जायज तरीके से शायद ही कभी हो, उसके लिए जैसे को तैसा होना ही पड़ता है। यूपी की भलाई इसी में है कि वह अपराधियों का साथ देना बंद करे। यहां अपराध खुद ब खुद खत्म हो जाएगा। 

 

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